रविवार, 29 नवंबर 2009

अनजान सफर

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर पे हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर, उधर के हम हैं,
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है,
अपने ही घर में किसी दुसरे घर के हम हैं।


वक्त के साथ है मिटटी का सफर सदियों तक,
किसको मालूम कहाँ के हम किधर के हैं,
चलते रहते हैं की चलना है मुसाफिर का नसीब,
सोचते रहते हैं किस राहेगुज़र के हम हैं...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

यह ब्लॉग खोजें