रविवार, 29 नवंबर 2009

रातें हमने आँखों में गुजारी है

दिल की दुनिया टूटने के बाद सब रोते थे,
हम थे की पागलों की तरह हँसते थे,
यह हल-ऐ-दिल हम कैसे सुनाते सबको कि,
तकलीफ न हो उनको इस लिए अकेले रोते थे।

बनाके अपना हमको भुलाने वाले हो तुम,
दिखाके रौशनी हमको जलाने वाले हो तुम,
अभी तक हम पुराने जख्मो से उभरे नही,
आज फिर से कोई नया दर्द उठाने वाले हो तुम,
इतनी रातें हमने आँखों में गुजारी है,
क्या आज रात मेरे खवाबो में आने वाले हो तुम।

हर दर्द हर ज़ख्म की वजह दिल है
प्यार आसान है मगर निभाना मुस्किल है।
डगर टेडी-मंदी भूलभुलैया मंजिल है
लहर बचा देती है डूबा देता साहिल है
तूफान से बना इसमे दरिया गया मिल है।

Ravi Srivastava

अनजान सफर

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर पे हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर, उधर के हम हैं,
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है,
अपने ही घर में किसी दुसरे घर के हम हैं।


वक्त के साथ है मिटटी का सफर सदियों तक,
किसको मालूम कहाँ के हम किधर के हैं,
चलते रहते हैं की चलना है मुसाफिर का नसीब,
सोचते रहते हैं किस राहेगुज़र के हम हैं...

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

शहीद हूँ मैं ...


दोस्तों , मेरी ये नज़्म , उन सारे शहीदों को मेरी श्रद्दांजलि है , जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर , मुंबई को आतंक से मुक्त कराया. मैं उन सब को शत- शत बार नमन करता हूँ. उनकी कुर्बानी हमारे लिए है .

शहीद हूँ मैं .....

मेरे देशवाशियों
जब कभी आप खुलकर हंसोंगे ,
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
जो अब कभी नही हँसेंगे...

जब आप शाम को अपने
घर लौटें ,और अपने अपनों को
इन्तजार करते हुए देखे,
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
जो अब कभी भी मेरा इन्तजार नही करेंगे..


जब आप अपने घर के साथ खाना खाएं
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
जो अब कभी भी मेरे साथ खा नही पायेंगे.

जब आप अपने बच्चो के साथ खेले ,
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
मेरे बच्चों को अब कभी भी मेरी गोद नही मिल पाएंगी

जब आप सकून से सोयें
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
वो अब भी मेरे लिए जागते है ...

मेरे देशवाशियों ;
शहीद हूँ मैं ,
मुझे भी कभी याद कर लेना ..
आपका परिवार आज जिंदा है ;
क्योंकि ,
नही हूँ...आज मैं !!!!!
शहीद हूँ मैं …………

Vijay Kumar Sappatti

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

अल्फाजों मे वो दम कहा


अल्फ़ाज़ों मैं वो दम कहाँ जो बया करे शख़्सियत हमारी,
रूबरू होना है तो आगोश मैं आना होगा ,
यूँ देखने भर से नशा नहीं होता जान लो साकी,
हम इक ज़ाम हैं हमें होंठो से लगाना होगा.


हमारी आह से पानी मे भी अंगारे दहक जाते हैं,
हमसे मिलकर मुर्दों के भी दिल धड़क जाते हैं,
गुस्ताख़ी मत करना हमसे दिल लगाने की साकी,
हमारी नज़रों से टकराकर मय के प्याले चटक जाते

जब हमसे कोई जुदा होता है तो जैसे मछलियाँ पानी से जुदा हो जाती है
हमारी याद मे ये हवा भी जल जाती है
हमें मिटाने की बेकार कोशिश ना करो तुम ,
क्यों की जब हम दफ़न होते हैतो ये जमी भी पिघल जाती है!!
ѕαηנαу ѕєη ѕαgαя

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

लम्हों ने खता की है....सदियों ने सजा पाई.....!!

लम्हों ने खता की है....सदियों ने सजा पायी.....!!
हवा की तरह एक-एक कर दिन बीतें जा रहे
हैंपता नहीं किस उम्मीद में हम जिए जा रहे हैं !!
किसी को मयस्सर नहीं है दो जून की रोटियाँ
शायद इसी गम में "कुछ लोग"पीये जा रहे हैं !!
कल सूरज नहीं निकलने वाला हो शायद इसीलिए
इस रात को ये अमीर लोग चरागाँ किए जा रहे हैं !!
मुश्किलें हैं ही कहाँ,मुश्किलें तो इक भ्रम है भाई
गरीब लोग तो बेकार ही मुश्किलों से मरे जा रहे हैं !!
भलाई की कोई उम्मीद नज़र तो नहीं आती फिर भी
हम(ब्राह्मण)ये साल अच्छा है-अच्छा है,किए जा रहे हैं!!
{इक ब्राहमण ने कहा है की ये साल अच्छा है,"ग़ालिब"}
कुछ लोगों को शायद यूँ ही मर जाना लिखा होता हो ओ
इसीलिए हम भी "गाफिल"जिए जा रहे हैं,जिए जा रहे हैं !!
सच बताऊँ तो यह ग़ज़ल समझ कर नहीं लिखी है,सच बताऊँ तो अपने समय में अपने ख़ुद के होने का कोई औचिया नहीं दिखाई देता,अपने होते हुए अपने चारो तरफ़ इतना कुछ होता हुआ दिखायी देता है,वो इतना दर्दनाक है,इतना मर्मान्तक है,कि दम-सा घुटता है,जुबां को रोका जा सकना कठिन होता है और आंखों से आंसूओं को रोक पानाभी,मगर सिवाय टुकुर-टुकुर ताकने के हम (बल्कि)मैं कुछ नहीं कर पाते।तो ऐसा भी जीना भला कोई जीना हुआ ??मगर जिए जाता हूँ.....अपने होने का अहम् और साथ ही अपने ही ना होने जैसी विवशता की पीड़ा...ये दोनों बातें एक साथ होती हैं तो कैसा होता है....??अपने को बहुत-कुछ समझने का बहम और कुछ भी नहीं होने का अहसास.....अपनी बातों में ख़ुद को दिखायी देती समझदारी और अपनी बातों को किसी को समझा नहीं पाने की मजबूरी......!!आदमी शायद ख़ुद को खुदा समझता है,शायद इसीलिए हर आदमी रोज सुबह अपनी-अपनी मस्जिद को जाता है....और शाम को गोया पिट-पिटा कर लौट आता है....आदमी की किस्मत ही ऐसी है,या आदमी ख़ुद अपनी किस्मत ऐसी ही बनाये हुए है....??......हमने खूब सारे ऐसे अकेले आदमी को देखा है,जिसने अपने बूते दुनिया बदल दी है.....मगर कोई सोच भी नहीं पता कि दरअसल वो ख़ुद भी इस छोटी-सी कतार में ख़ुद को खड़ा कर सकने का माद्दा अपने भीतर संजोये हुए है....!!हर आदमी दरअसल एक हनुमान है,जिसे अपनी भीतरी वास्तविक शक्तियों का अनुमान नहीं है,मगर याद दिलाये जाने पर शायद उसे भान हो जाए...उन व्यक्तियों में से एक तो मैं ख़ुद भी हो सकता हूँ....!!इस तरह विवश होकर जीना भी क्या जीना है....??कुछ भी ना कर सकना भी क्या होने में होना है....??.....एक-एक पल... मिनट...घंटा....हफ्ता.....साल.....दशक.....शताब्दी .....युग......बीता जा रहा है.....आदमी के भौतिक विकास की गाथा तो दिखायी देती है.....उसकी चेतना और आत्मा में क्या विकास हुआ है....किस किस्म का विकास है....आदमी अपने भीतर कहाँ तक पहुँचा है.....यह देखता हूँ तो कोफ्त होती है....क्योंकि....भौतिक चीज़ों की अभिलाषा में आपाद-मस्तक डूबा यह आदमी लालच के एक ऐसे सागर में डूबा हुआ दिखायी देता है....जिसकी गहराई की कोई थाह ही नहीं दिखायी देती.....और इस लालच के मारे असंख्य अपराध और असंख्य किस्म के खून-कत्ल आदि किए जा रहा है...किए ही जा रहा है.....और शायद करता भी रहेगा.....ऐसे आदमी को इस भूत का सलाम.....ऐसी मानवता को इस भूत का हार्दिक सैल्यूट......और आप सबको असीम प्रेम......भरे ह्रदय से आप सबका

भूतनाथ.......!!

क्या आत्म-हत्या करना एक आखरी रास्ता हैं?


कई लोग सोच रहे होंगे की क्या आत्म-हत्या करनेकी बात ये लड़का क्यों कर रहा हैं, लकिन कई बार हमारे जीवन में कई ऐसी परिस्थितिया और माहौल ऐसे आ जाते हैं जो बिल्कुल प्रतिकूल होते हैं. अभी कुछ दिन पहले ही मेरे साथ भी यही हुआ.
रात में सोच रहा था की काश की मैं इस दुनिया में आया ही नहीं होता|
लेकिन अगले दिन सुबह सब कुछ पहले जैसा ही हो गया और फिर मुझे रात वाली बात याद आई और मुझे काफी ज्यादा दुःख इस बात का हुआ की मैंने पिछली रात अपने मूल्यवान जीवन को नष्ट करने के बारे में सोचा . ये जीवन तो उस भगवन की देन हैं और मैं कौन होता हूँ इसे नष्ट करने वाला और तो और मैंने ये तक नहीं सोचा की अगर मैं इसे ख़त्म कर देता तो उन लोगो का क्या होता जो मेरे इतने करीब हैं की मेरी हर सांस के साथ उनकी भी साँसे जुडी हुई हैं.
हम लोगो को जब तक सुख मिलता हैं तब तक हम कभी किसी को भी नहीं कोसते या कभी भगवन को भी शुक्रिया अदा नहीं करते. लेकिन जैसे ही वो सुख चला जाता हैं तो हमारा स्वाभाव कुछ ऐसा क्यों हो जाता हैं की सिर्फ हम शिकायते ही करते रहते हैं और उस भगवन को कोसते हैं की हमारी ऐसी परीक्षा क्यों ले रहा हैं? क्या ये सही हैं ?

मुझे इस बात का अफ़सोस हैं की मैंने अपनी उस माँ के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचा जिसने मुझे पैदा किया ? और पुरे नौ महीने अपनी कोख में पाला और वो दर्द सहा...........
माँ-बाप का दर्जा तो भगवन से भी उचा होता हैं लेकिन मैंने अपने उसी भगवन को ही अपमानित किया. मैं बेवकूफ सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए ही ऐसा करने की सोच रहा था.

लेकिन जब मेरा इरादा अगले दिन बदला तो मुझे इसका अहसास हुआ की मैं कितना गलत था!!!!!
मेरी उस बेतुकी सी सोच का क्या अंजाम होता. लोग तो यही कहते न की बेवकूफ था वो जिसने आत्महत्या कर ली और अपने माँ-बाप, दोस्तों, भाई - बहनों को रोता बिलखता छोड़ गया अपने पीछे, ऐसी औलाद होने से अच्छा तो ये होता की हमरी औलाद ही ना हो.
क्यों ये सच हैं न !! जो व्यक्ति अपने जीवन में आने वाली हर उन समस्याओ को सुलझा न पाए तो उस व्यक्ति को आप क्या कहेंगे ???
मुझे पता हैं आपका उत्तर क्या होगा ?

आप उस व्यक्ति को कायर कहेंगे जिसने सिर्फ अपने हिस्से का सुख तो भोग लिया लेकिन अपने हिस्से का दुःख भोगने के लिए अपने प्रियजनों को अपने पीछे छोड़ गया.

लेकिन उन परिस्थितियों में मेरी जगह कोई भी व्यक्ति होता तो वो भी ऐसा ही सोचता की .........
लेकिन क्या करे इंसान की फितरत ही कुछ ऐसी होती हैं की वो वो सब करने की सोचता हैं जो उसे नहीं करना चाहिए.

इस घटना से मैंने तो एक बहुत ही अच्छी सीख ली की...
चाहे जैसी भी परिस्थितिया क्यों न आ जाये मेरे सामने, उसका डट कर सामना करना हैं. क्योंकि अगर मैंने दुबारा आत्महत्या करने का सोचा तो मेरे बाद कई और हत्याए होंगी, किसी माँ की उन सभी इच्छाओ का, किसी पिता की उन उमीदो का, किसी बहन की उन आशाओ का, जो उन्होंने अपने उस बेटे से लगा रखी थी जो उन्हें बेसहारा छोड़ गया.
Pawan Kumar Mall

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

माँ..मुझे मार दो


प्यारी माँ,
तुम्हे देखा तो नहीं है, न ही तुम्हारी आवाज़ सुनी है, पर तुम्हारी धङकनों से सब समझती हूँ। माँ...आज तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ। मैं बहुत डरी हुई हूँ। माँ कल ही जब तुम्हारी धङकनो की रफ्तार बङी तो मुझे पता चला कि पङोस वाली गीता दीदी के साथ क्या हुआ। दीदी के चेहरे पर किसी ने तेजाब डाल दिया है न माँ...वो जल गई है न...मैंने महसूस किया था दीदी की माँ रो-रो कर कह रही थी “मेरी बेटी का क्या कसूर था...सिर्फ छेङखानी का विरोध ही तो किया था न उसने...उसकी इतनी बङी सजा़? क्या होगा अब मेरी बेटी का...???”...माँ, दीदी का क्या दोष था..?
माँ परसो मुझे चोट लग गई...जानती हूँ आपको भी काफी चोटे लगी है...पापा ने आपको क्यूँ मारा माँ? मुझे बहुत दर्द होता है...ऐसी चोटे मुझे अक्स़र लगती रहती है..माँ पापा से कहिये न कि उनकी हिंसा उनकी बेटी तक पहुँच रही है..मां..करुणा बुआ की आहट अब कब सुनाई देगी? हा माँ..आपकी धङकनों ने सब बता दिया।करुणा बुआ का स्कूल छुङवा कर उनकी शादी करवा दी न माँ..पर अभी तो वो छोटी है न माँ..अब वो खेलने कैसे जाएंगी माँ..?मैंने तो सोचा था उन्हीं से पढ़ना लिखना सीखूंगी।दादू ने बुआ की शादी इतनी जल्दी क्यूँ कर दी माँ..?
माँ उस दिन चाचा के गुस्से को आपकी धङकन से महसूस किया था।चाची अपने घर से क्या नहीं लायी जो चाचा उनको लाने को कह रहे थे माँ...चाचा चाची को वापस भेजने को भी तो कह रहे थे न..पर माँ,चाची तो अभी अभी ही आई है..मैं तो सोच रही थी चाची ही मुझे तैयार किया करेंगी।चाचा से कहो न माँ...कितना सामान तो लाई थी चाची..अब वो उन्हें घर न भेजे...
माँ आपको मेरी नन्ही आँखों को खुलते देखने का..मेरे छोटे गुलाबी हाथों को अपने हाथों में लेने का.. रोने की आवाज़ सुनने का बहुत इंतज़ार है न..मैं जानती हूँ आपको जानकर बहुत दुख होगा,पर माँ..मैं बहुत डर गई हूँ।माँ सारी बेटियों की ज़िन्दगी ऐसी क्यूँ होती है?आपकी दुनिया में आने के बाद मेरी हालत भी गीता दीदी,करूणा बुआ,चाची और आपकी तरह हो जाएगी न?माँ मुझपर रहम करो,मैं इस बेरहम दुनिया में नहीं जी पाऊंगी..इसलिए मेरी ये विनती सुन लो...माँ मुझे जन्म न दो...मार डालो...इससे पहले की मैं बारबार मरुँ...
आपकी अजन्मी बेटी


शबनम खान

मैं एक आम इन्सान हूँ

अपने दुख दर्दों से परेशान हूँ
देखके दुनिया का तमाशा हैरान हूँ
मुझे पहचान लो दोस्तों
मैं एक आम इन्सान हूँ


मंहगाई की मार झेल रहा हूँ
ज़िन्दगी को किसी तरह ढकेल रहा हूँ
मुझे पहचान लो दोस्तों
मैं एक आम इन्सान हूँ


घर से बाहर निकल मैं डर रहा हूँ
अपने जान माल की चिन्ता मैं कर रहा हूँ
मुझे पहचान लो दोस्तों
मैं एक आम इन्सान हूँ


ट्रैफिक से भरी सङके देख रहा हूँ
“नैनो लूंगा अपनी” फिर भी ये फेक रहा हूँ
मुझे पहचान लो दोस्तों
मैं एक आम इन्सान हूँ


अस्तित्व देश के अन्दर ही खोए जा रहा हूँ
भाषाओं की लङाई में मौन रोए जा रहा हूँ
मुझे पहचान लो दोस्तों
मैं एक आम इन्सान हूँ


“आम” बनके इस दुनिया में आया हूँ
“ख़ास” बनने की आस लिए ही जिए जा रहा हूँ
मुझे पहचान लो दोस्तों
मैं एक आम इन्सान हूँ
शबनम खान...

ऐ खुदा कुछ कर मदद...!!!


ऐ खुदा कुछ कर मदद एक इश्क ऐसा दे दे,

हो जाए जिससे दिल की चाहत कोई !!

आसमान के चाँद जैसा हो जो निश्चल हमसफ़र ,

ऐ खुदा कुछ कर मदद हमनशी वो दे दे!

चाँद तारों की झलक हो और हो एक प्यारा दा दिल ,

बस सके उस दिल में मेरे प्रीत ऐसा दे दे !!

न हीं मुराद हो बज्म की ,न ही सिकन हो रश्म की ,

कर सके गर इश्क मेरे से भी बढ़कर नज्म की ,

ऐ खुदा एस बदनसीब को खुशनशीब वो दे दे

हो जाए जिससे दिल की चाहत कोई !!

कुछ न मांगू ऐ खुदा बस साथ ऐसा दे दे

गाता रहूँ , सुनता रहे वो ----------,

एक रात सही पर साथ ऐसा दे दे ,

हो जाए जिससे दिल की चाहत कोई,

गर न मिल सके स्वपननील मेरा वो हमसफ़र ,

ऐ खुदा एक काम कर , ले चल मुझे कुछ उस जगह ,

इश्क की जहाँ उठती

शाम हो या हो दोपहर,
सो सकूँ ताकि जहाँ मैं खावों में अपने हमसफ़र के ,

गर न मिलता हो कहीं ऐसा वतन ,

क्या कहूँ बस ऐ खुदा मेरी जिंदगी तू ले ले ,

ऐ खुदा कुछ कर मदद एक इश्क ऐसा दे दे,

हो जाया जिससे दिल की चाहत कोई !!


Posted by bthoms

माँ काश तुम नारी होती.....


माँ
जब तुम बेटी थी
तब तुम
लाडली थी पिता की
रोज़ उनकी दिन भर की थकान को
बदल देती थी मुस्कराहट में


माँ
जब तुम बहन हुई
तब बाँधी तो राखी भाई को तुमने
पर खड़ी हुई ख़ुद आगे
उस पर खतरे की
हर आहट में

माँ
जब थी तुम प्रेमिका
तब एक एक जोड़ा गया
सिक्का
दे डाला था कॉलेज के
उस धोखेबाज़ युवक को

माँ
जब तुम बनी पत्नी
पति की हर
ग़लत हरक़त पर भी
ना दिल में दी जगह
तुमने शक को

माँ
जब तुम बहू थी
तब हर बात
हर ताना, हर व्यंग्य
हर कटाक्ष हर तारीफ़
तुमने निरपेक्ष भाव से सहा

माँ
जब तुम माँ बनी
पहली बार
कितना दर्द सहा
पर किसी से
कभी नहीं कहा

माँ
तुम जब भी
बेटी थी, बहन थी
पत्नी थी या माँ थी
तब भी हर बार तुम माँ ही रही
और कुछ कहाँ थी

पर माँ
तुम सब कुछ थी
तो स्त्री क्यों नहीं हो पायी
क्यों अपने भीतर की
स्त्री को
छुपा दिया इन आवरणों में

क्यूँ ख़ुद के अस्तित्व को
ख़त्म कर डाला
लगा कर
अपने ऊपर चिप्पियाँ हज़ार
हर बार

क्या एक माँ, एक बहन
या कुछ भी और
होने के साथ साथ
तुम्हारे लिए लाज़मी नहीं था
एक स्त्री भी होना

क्यूँ जब तुम बेटी थी
तो बेटे से कम हिस्से पर खुश हो गई....
क्यूँ जब तुम बहन थी
तो खाई
भाई के हिस्से की डांट

क्यूँ हर बार
यह सुन कर भी चुप रहीं
कि लड़की तो धन है पराया
क्यों प्रेमी से ही विवाह का
साहस मन में नहीं आया

क्यों किताबें ताक पर रखी
और थाम ली हाथों में
कड़छियां
नहीं पूछा कभी पिता से कि
क्यों काम करें केवल लड़कियां

क्यों नहीं कभी कहा
कि नहीं
काम में कैसा बंटवारा
सब कमाएं, सब पढ़ें
क्या हमारा
तुम्हारा

मां
क्यों खुद अपनी बेटी को
बोझ मान लिया
क्यों नहीं बहू को लाड़
बेटी सा किया

मां
तुम तो मां थी न
फिर क्या मुश्किल था
तुम्हारे लिए
माँ तो सब कुछ कर सकती हैं ना

माँ
तो फिर
क्यूँ नहीं हो पायी तुम
एक स्त्री
माँ
क्यूँ तुम पर हावी रहा
हमेशा कोई नर

कितना अलग होता
तुम मां, बहन या कुछ भी
होने से पहले
एक नारी होती अगर.....

(मैं ऋणी हूं अपनी मां का जिनकी वजह से आज कुछ बन पाया......पर आज भी अखरता है कि कब तक बच्चों को पालने सिखाने और बड़ा करने की ज़िम्मेदारी, रसोई के बर्तनों का शोर और सलीके सीखने का ज़ोर केवल स्त्रियों पर ही रहेगा और बेटे को पाल कर बड़ा आदमी बना देने वाली माँ बेटी से अन्याय करने पर मजबूर हो जाती है ?)

मयंक...

बुधवार, 18 नवंबर 2009

बुढ़िया की व्यथा


परवरिश में भूल हुई क्या, न जाने
ढलती उम्र में बच्चे आँख दिखाते हैं
नाजों से पाला था जिनको, न जाने
क्यूँ अब सहारा बनने से कतराते हैं
निवाला अपने मुंह का खिलाया जिनको, न जाने
क्यूँ वे आज साथ खाने से घबराते हैं
सारा दर्द मेरे हिस्से और खुशियाँ उनके, न जाने
क्यूँ वे अब भी दर्द मेरे हिस्से ही छोड़ जाते हैं
उनकी पार्टी मानती है रोशनी में और मेरी साम अँधेरी कोठरी में, न जाने
क्यूँ वे हर बार मुझे ही शामिल करना भूल जाते हैं
उम्र के साथ कमजोर हुई मेरी सोच, न जाने क्यूँ वे आज मुझे याद करने से डर जाते हैं
जीवन के आखिरी सफर में चेहरे सबके देखने की हसरत में, न जाने
क्यूँ मेरे अपने विदेश में बैठ जाते हैं
अपनी उखरती साँसों के समय साथ उनका चाहा मैंने, न जाने
क्यूँ वे काम में इतने व्यस्त हो जाते हैं
उम्र भर सबको साथ लेकर चली मैं, न जाने
क्यूँ मेरी विदाई को वे गुमनामी में निपटाते हैं॥

ज्ञानेंद्र, अलीगढ

वीसीआर पर फिल्म और पुरानी यादें...


रंगीन टीवी पर फिल्म चल रही है राजा हिंदुस्तानी... हर कोई मग्न होकर फिल्म देखने में लगा है... एक शॉट् में हीरो आमिर खान करिश्मा कपूर का चुंबन लेता है... और सीटियां बजने लगती हैं... नाइनटीज़ के आखिर में किसी हिंदी फिल्म का ये सबसे लंबा चुंबन सीन था... आशिकों के दिलों की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं... लड़कियां लरज़ती हुई अपना चेहरा छिपा लेती हैं.... घड़ी रात का एक बजा रही है... आंखे नींद के आगोश में जा रही हैं... तभी कोई आवाज़ लगाता है... अरे कोई लड़की उठकर चाय बना ला... चाय का नाम सुनकर लड़कियां इधर-उधर दुबकने लगती हैं... क्योंकि एक तो रज़ाई में से निकलकर चूल्हा जलाने का अलकस, उसपर फिल्म के छूट जाने का डर... लेकिन बड़े बुज़ुर्गों के आगे उनकी एक न चलती... मरती क्या न करतीं चाय तो बनाना ही पड़ेगी और वो भी एक-दो नहीं, कम से कम तीस-चालीस लोगों के लिए... वो भी बड़ा सा भगोना भरकर...जिसमें चाय, दूध और पानी का संगम होगा... जिसे चाय कम जोशांदा कहा जाए तो शायद ठीक होगा...

नवंबर 1997 की बात है... जब टीवी का चलन बहुत कम घरों में था... और रंगीन टीवी तो खासकर कम देखने को मिलता था। ज्यादातर घरों में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी ही था। टीवी पर फिल्में तो वैसे भी हफ्ते में दो दिन शनिवार और रविवार को ही आती थी... लेकिन क्या करें बिजली आती नहीं थी, तो फिल्म भला कहां देखने को मिलती। लेकिन फिल्म देखने के शौकीनों ने एक ज़रिया निकाल लिया था.. वीसीआर पर फिल्में देखने का। लेकिन इस वीसीआर पर फिल्म देखने का असली मज़ा तो शादियों के दौरान आता था... घर में शादी के बाद जब काम-धाम निपट जाता था और घर में कुछ रिश्तेदार मेहमान ही बच जाते थे, तो शादी की अगली रात को वीसीआर चलाया जाता था। वीसीआर चलता कम था उसका हल्ला ज्यादा होता था। पूरे मौहल्ले भर को पता चल जाता था कि आज फलां घर में वीसीआर चलेगा... बाकायदा किराए पर वीसीआर मंगाया जाता था.. शादी के घर में जनरेटर तो होता ही था, सो लाइट की कोई फिक्र नहीं होती थी।


एक रात में वीसीआर पर तीन फिल्में चलती थीं। इस दौरान इश्किया मिज़ाज लड़कों की चांदी हो जाती थी, ज़रा किसी लड़की ने वीसीआर का जिक्र छेड़ा, जनाब जुट गये वीसीआर का इंतज़ाम करने में। और तो लड़कियों से उनकी फ़रमाइश भी पूछी जाती थी। शोले हर किसी की फरमाइश में सबसे ऊपर होती थी। वीसीआर चलने से पहले ही घर के सारे काम निपटा लिये जाते। इधर घर के बढ़े-बूढे़ सोने गये, उधर शुरु हो गया वीसीआर पर सनीमा... नवंबर की कड़कड़ाती रात थी और वीसीआर पर शुरु हुआ फिल्मों का दौर। पहली फिल्म चली राजा हिंदुस्तानी... तब ये फिल्म रिलीज़ ही हुई थी। घर के सभी लोग आंगन में दरी-गद्दा बिछाकर बैठे थे... ऊपर से लोगों ने टैंट हाउस से आये लिहाफ़ भी लपेट लिये थे। गाना बजा आये हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बनके.. एक ड्राइवर से एक अमीर बाप की बेटी का प्यार... एक मिडिल क्लास के लिए इससे बढ़िया स्टोरी भला और क्या हो सकती थी।

बस फिर क्या था, लड़के खुद को सपने में आमिर खान और लड़कियां खुद को करिश्मा कपूर समझने लगीं। और उनके मां-बाप एक दूसरे के लिए खलनायक...। फिल्म देखते-देखते सपनों में अपनी दुनिया बसाने लगे। फिल्म की पूरी स्टोरी ख्यालों-ख्वाबों में उतर जाती। तीन फिल्मों के बीच में हर फिल्म के बाद इंटरवल होता था। इस दौरान चाय का दौर चलता था। लड़कियां चाय बनाने बावर्चीखाने में पहुंची, पीछे से मटरगश्ती करते हुए मजनू मियां भी कतार में लग जाते थे। अगर गलती से ऑपरेटर ने फिल्म लगा दी, फिर देखिए चाय बनाने वाली का गुस्सा... हमारे बिना आये तुमने फिल्म कैसे चला दी, पता नहीं है, हम चाय बना रहे हैं। बेचारे को फिल्म फिर से लगाना पड़ती थी। इस दौरान ऑपरेटर साहब का भी बड़ा रुतबा होता था, टीवी पर फिल्म लगाकर जनाब खुद तो एक कोने में दुबक जाते थे, लेकिन कोई उनको सोने दे तब न...

शोर मचता था.. अरे तस्वीर तो आ नहीं रही है... अरे इसकी आवाज़ कहां चली गई...? सबसे ज्यादा मज़ा तब आता था, जब कैसेट बीच में फंस जाती थी... बेचारे ऑपरेटर को नींद से उठकर आके फिर से वीसीआर को सैट करना पड़ता था। पहली फिल्म के बाद आधे लोग तो सो जाते थे और तीसरी फिल्म तक तो इक्के-दुक्के लोग ही टीवी सैट पर नज़रे चिपकाए होते थे। लेकिन इस दौरान आशिक मिजा़ज अपनी टांकेबाज़ी को बखूबी अंजाम देने में कामयाब रहते थे। अरे भाई फिर फिल्म देखने का फायदा ही क्या हुआ... फिल्म कौन कमबख्त देखने आया था... असली मकसद तो बारात में आई लड़की से टांका भिड़ाना था। लड़की ने अगर मुस्कुरा कर उनसे बात कर ली, तो समझो भाईजान का रतजगा कामयाब हो गया। सुबह मौहल्ले में सबसे ज्यादा सीना उन्हीं का चौड़ा होता था। लेकिन इस दौरान कुछ कमबख्त ऐसे भी होते थे, जो फिल्म तो कम देखते थे, लेकिन दूसरों की जासूसी करने में लगे रहते थे और सुबह की पौ फटने से पहले भांडा फोड़ दिया करते थे। खैर अब न तो वीसीआर रहा, न पहले जैसे सुनहरे दिन.. अब तो फिल्म से लेकर प्यार-मौहब्बत तक सबकुछ हाईटेक हो गया है
अबयज़ ख़ान....

लड़कियां वाकई खूबसूरत होती हैं...


खूबसूरत
लड़कियाँ
छोटी हों
जवान हों
बूढ़ी हों
खूबसूरत होती हैं
लड़कियाँ
वाकई में खूबसूरत होती हैं
क्योंकि
वे झट से
घुल-मिल जाती हैं
हर लड़की से
बॉंट लेती हैं
अपने और औरों
छोटे-छोटे
दुख-दर्द
या सुख
पनघट पर
ऑफ़िस के प्रसाधन कक्ष में
या चलती बस -ट्रेन में
एक अनजान सहयात्री
लड़की या महिला से
हऑ
हँस लेती हैं
बात पर
बिना बात भी
मगर पुरूष
कैद रहता है
अपनी तथा कथित
गम्भीरता में
लड़कियां
वाकई
खूबसूरत होती हैं
क्योंकि
लड़कियों से खूबसूरत
और कोई नहीं
होता ।
.........
अच्छा-बुरा
लड़के
बुरे नहीं होते
वे तो
प्यार करते हैं लड़कियों से
लड़के बुरे
हो जाते हैं
जब वे
पा जाते हैं
पति होने का अधिकार।

औरत को समझने के लिये..

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

तुम्हारे साथ.........


तुम्हारे साथ
रहकरअक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकरएक आँगन-सी बन गयी हैजो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैंकि मैं उनके शीश पर हाथ रखआशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।

तुम्हारे साथ रहकरअक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक की घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार परचढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।
प्रस्तुतकर्ता Shankar

सोमवार, 16 नवंबर 2009

जरा बताओ हमें.........दहेज़ चाहिए?


अरे किसी के दिल का टुकडा वह भी दहेज़ समेत चाहिए.
जरा बताओ हमें जवानों क्या तुम्हे दहेज़ चाहिए.

क्या विवाह की आवश्कता केवल लड़की की होती हैं.
अगर नहीं तो लड़को को धन की चाहत क्यों होती हैं.
लड़को को भी तो जीवन में जीवन साथी एक चाहिए
जरा बताओ हमें..............................................

कितना त्याग करती हैं नारी, क्या तुमने कभी सोचा हैं.
तुम क्या जानो अपने घर को तज देने का दुखः क्या होता हैं.
इस दुःख के अहसास के लिए बेटा बिदा रिवाज चाहिए.
जरा बताओ हमें..............................................

अरे किसी की बेटी लाकर तुम एहसान नहीं करते हो.
कचरा नहीं किसी के घर का जो तुम अपने घर में भरते हो.
उल्टा कन्यादान का मानना तुम्हे एहसान चाहिए.
जरा बताओ हमें..............................................

अर्धांगिनी जिसे तुम कहते हो, जिसके बिना तुम स्वयं अधूरे.
जिसके तुम सपने बुनते हो, जिसके बिना सब ख्वाब अधूरे.
उसी संगिनी को लाने को दौलत की क्या टेक चाहिए.
जरा बताओ हमें..............................................

अरे जवानों क्यों अपने यौवन को शर्मिंदा करते हो.
मर्द हो अपने पौरुष से तुम हर सुख हासिल कर सकते हो.
आज सभी ये करो प्रतिज्ञा पत्नी बिना दहेज़ चाहिए.
जरा बताओ हमें..............................................

रविवार, 15 नवंबर 2009

नारी तेरे रूप अनेक या एक?

आज का टेलीवीज़न चैनल महिलाओं को खलनायिका बनाने पर उतारू है,जितने भी मनोरंजन चैनल हैं, वो महिलाओं को केन्द्र में रखकर अपने कार्यक्रम बना रहे हैं,शादी,बहू,बहूरानियाँ,दुल्हन, मायका,ससुराल, बिटिया,सास..... सबकी सांसत है, चाल चौकडी चलते चलते ये थकतीं भी नहीं हैं,ऐसा लगता है जैसे मानो अपने देश की माँ ,बेटी ,सास बहू,जेठ जेठानी, सब मक्कारी में लिप्त हैं , एक दूसरे को नीचा दिखाना इनकी फ़ितरत है...

अनैतिकसम्बन्ध,ईर्श्या,बदचलनी,षडयंत् र....आज की कहानियों का आधार हैं, धारावाहिकों को देख कर तो लगता है कि सकारात्मक विचारों की महिला अपने देश में हैं ही नहीं,और मर्द... बेचारा नपुंसक ! ,किसी काम का नहीं. बस उसका काम पैसा कमाना है और औरतें चाल चलचल कर सम्पत्ती हड़पने,या किसी दूसरी औरत को नीचा दिखाने में ही लगी पड़ी हैं, और आंकड़े कहते हैं कि औरतें ही है जो ज़्यादा टेलीवीज़न देखतीं हैं,और औरतें देखना भी यही सब ज़्यादा चाहती हैं,और उनको सबसे ज़्यादा सास-बहु,देवर देवरानी,जेठ जेठानी के रिश्ते की खटास वाला पक्ष ही सबसे अच्छा लगता है.....

मनोरंजन चैनलों से जो कार्यक्रम खास तौर से परोसे जा रहे है उनके नाम तो देखिये.. हमारी बेटियों का विवाह,.राजा की आएगी बारात,मेरा ससुराल,मायका,घर की बेटी लक्ष्मियाँ ,बाबुल का अंगना,डोली सजा के रखना,नागिन,सात फेरे,सुजाता,तीन बहुरानियाँ, आदि...... और भी बहुतेरे नाम हैं, इन सारे धारावाहिक में औरतें एक से एक नई डिज़ाइन के कपड़े,गहने,में सजी धजी गुनाह पर गुनाह किये जा रही है और रोती रहती हैं एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगी रहतीं हैं,बदला लेती औरत,प्यार करती औरत....क्या औरत के नाम पर यही सब अधकचरी चीज़ें रह गईं हैं दिखाने को? तो क्या हमें मान लेना चाहिये कि जो ये मनोरंजन चैनल हमारे सामने जो परोस रहे हैं...... यही हमारा समाज है?

पुरुष, बेचारा बेचारा सा दिखाता है, औरतों के इस फ़रेब के सामने असहाय बना कितना लाचार दिखता है, क्या ऐसा है?क्या कुछ ऐसा हो गया है कि पुरुष प्रधान समाज में औरतें कुछ इतना बढ़ गईं है कि पुरुष कमज़ोर होता दिख रहा है,या औरत,औरत के खिलाफ़ किसी भी साजिश को देखना सबसे ज़्यादा पसंद करतीं हैं?

एक मित्र कह रहे थे कि जब बहू अपनी सास को अपनी किसी चाल से मात दे देती है तो घर में बैठी बहू अपनी सास की तरफ़ विजयी मुस्कान से देखती है,जो बहू घर में बोल नहीं सकती उनकी आवाज़ ये चैनल होते हैं...क्या इतनी गहराई से देखा जा रहा है ये सब कुछ?

और दूसरी तरफ़ हिन्दी फ़िल्म इन्डस्ट्री का हाल ये है कि औरतो (हिरोईन) का काम एक दम स्टीरियो टाइप्ड ही रहता है...हीरो वो सब कुछ करता है जो एक आम इंसान नहीं कर सकता...

तो क्या मान लेना चाहिये कि जिसकी लाठी उसकी भैंस........टेलिवीज़न औरतों का माध्यम है और फ़िल्म पुरुषों का? आखिर कौन है जो इन्हे सही तस्वीर दिखाने से रोक रहा है?

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