रविवार, 28 फ़रवरी 2010

कुछ यूँ भी .......

वक्त कि जुराबों में ,अनफिट रहे हम
पत्थरों के शहर में ,शीशा हुए हम|

खुदा कि खुदाई ,सहते रहे हम
पत्थरों को भगवान मान ,पूजते रहे हम|

उन सूनी और अँधेरी गलियों, कि क्या कहें
जब भीड़ भरी सडको पर , तनहा रहे हम|

अहसासों के आँगन में ,आवाज कि खामोशिया
चंदा कि चांदनी, में ढूंढते रहे हम|

सरपट दौडती जिदगी के , चोराहे पर
वक्त ही कहाँ नजरे मिलाने चुराने को दे पाए हम


अभिव्यक्ति

कोई

" रश्क होने लगा है हमे , अश्कों की सौगातों के लिए
नाम महफिल में आया आपका , बस हमारे खो जाने के लिए
भीग जायेगी हीना , हथेली पे, रंग और निखरेगा , अभी ,
कहते हैं , मिटटी से मिल , उठती है घटा , बरसने के लिए "
क्यूँ न पुछा था मुझ से , उसने , रुकूं या मैं चलूँ ?
दिल लेके चल देते हैं वो , बस मिलके बिछुडने लिए !
कितनी दूर चला था मेरा साया , मेरी रूह से बिछुड़ , अनजाने में ,
लौट आया है कोई , मेहमान बन , फ़िर दिल में ‘समाने के लिए’ "

लावण्या...

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

होली के मोके पर सरकार ने 
दे दिया महंगाई का तोहफा, 
कयोकि सरकार भी जानती है 
लोग गम भुलाने के कई तरीके
अपनायंगे और इस बहाने 
महंगाई का गम भी भूल जायंगे.

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

होली के रंग में

दुनिया रंगीली लग रही होली के रंग में 
कल्लो कटीली लग रही होली के रंग में।

अब भंग की तरंग का कुछ ऐसा रंग है
हर शै नशीली लग रही होली के रेंग में।

ये भंग की तरंग है या जाम का नशा
बुढ़िया नवेली लग रही होली के रंग में।

इस फाग की मस्ती में सभी टुल हो गए
मिर्ची रसीली लग रही होली के रंग में।

मस्ती के इस आलम का नशा इस कदर चढ़ा 
मकबूल भी रंगीं हुए होली के रेंग में।

मकबूल

मेरे हिस्से में हरदम जूठन ही क्यों आया...


जब मैं इस दुनिया में आई
तो लोगों के दिल में उदासी
पर चेहरे पर झूठी खुशी पाई।
थोड़ी बड़ी हुई तो देखा,
भाई के लिए आते नए कपड़े
मुझे मिलते भाई के ओछे कपड़े।

काठी का हाथी, घोड़ा, बांदर आया

भाई थक जाता या
खेलकर उसका मन भर जाता
तब ही हाथी, घोड़ा दौड़ाने का,
मेरा नंबर आता।

मैं हमेशा से ये ही सोचती रही

क्यूं मुझे भाई का पुराना बस्ता मिलता
ना चाहते हुए भी
फटी-पुरानी किताबों से पढऩा पड़ता।
उसे स्कूल जाते रोज रूपया एक मिलता
मुझे आठाने से ही मन रखना पड़ता।

थोड़ी और बड़ी हुई, कॉलेज पहुंचे

भाई का नहीं था मन पढऩे में फिर भी,
उसका दाखिला बढिया कॉलेज में करवाया
मेरी इच्छा थी, बहुत इच्छा थी पर,
मेरे लिए वही सरकारी कन्या महाविद्यालय था।

और बड़ी हुई

तो शादी हो गई, ससुराल गई
वहां भी थोड़े बहुत अंतर के साथ
वही सबकुछ पायाथोड़ी बहुत बीमार होती तो
किसी को मेरे दर्द का अहशास न हो पाता
सब अपनी धुन में मगन -
बहु पानी ला, भाभी खाना ला
मम्मी दूध चाहिए, अरे मैडम चाय बना दे।

और बड़ी हो गई,

उम्र के आखरी पडाव पर आ गई
सोचती थी, काश अब खुशी मिलेगी
पर हालात और भी बद्तर हो गए
रोज सबेरा और संध्या बहु के नए-नए
ताने-तरानों से होता।

दो वक्त की रोटी में भी अधिकांश

नाती-पोतों का जूठन ही मिलता।
अंतिम यात्रा के लिए,
चिता पर सवार, सोच रही थी- 

मेरे हिस्से में हरदम जूठन ही क्यों आया।
प्रस्तुति:- लोकेन्द्र सिंह राजपूत. दिल दुखता है.....

मैं तो यहीं हूँ....तुम कहाँ हो...!!

इक दर्द है दिल में किससे कहूँ.....
कब लक यूँ ही मैं मरता रहूँ !!
सोच रहा हूँ कि अब मैं क्या करूँ
कुछ सोचता हुआ बस बैठा रहूँ !!
कुछ बातें हैं जो चुभती रहती हैं
रंगों के इस मौसम में क्या कहूँ !!
हवा में इक खामोशी-सी कैसी है
इस शोर में मैं किसे क्या कहूँ !!
मुझसे लिपटी हुई है सारी खुदाई
तू चाहे "गाफिल" तो कुछ कहूँ !!
०००००००००००००००००००००००००
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दूंढ़ रहा हूँ अपनी राधा,कहाँ हैं तू...
मुझको बुला ले ना वहाँ,जहाँ है तू !!
मैं किसकी तन्हाई में पागल हुआ हूँ
देखता हूँ जिधर भी मैं,वहाँ है तू !!
हाय रब्बा मुझको तू नज़र ना आए
जर्रे-जर्रे में तो है,पर कहाँ है तू !!
मैं जिसकी धून में खोया रहता हूँ
मुझमें गोया तू ही है,निहां है तू !!
"गाफिल"काहे गुमसुम-सा रहता है
मैं तुझमें ही हूँ,मुझमें ही छुपा है तू !!


भूतनाथ

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