मंगलवार, 24 नवंबर 2009

लम्हों ने खता की है....सदियों ने सजा पाई.....!!

लम्हों ने खता की है....सदियों ने सजा पायी.....!!
हवा की तरह एक-एक कर दिन बीतें जा रहे
हैंपता नहीं किस उम्मीद में हम जिए जा रहे हैं !!
किसी को मयस्सर नहीं है दो जून की रोटियाँ
शायद इसी गम में "कुछ लोग"पीये जा रहे हैं !!
कल सूरज नहीं निकलने वाला हो शायद इसीलिए
इस रात को ये अमीर लोग चरागाँ किए जा रहे हैं !!
मुश्किलें हैं ही कहाँ,मुश्किलें तो इक भ्रम है भाई
गरीब लोग तो बेकार ही मुश्किलों से मरे जा रहे हैं !!
भलाई की कोई उम्मीद नज़र तो नहीं आती फिर भी
हम(ब्राह्मण)ये साल अच्छा है-अच्छा है,किए जा रहे हैं!!
{इक ब्राहमण ने कहा है की ये साल अच्छा है,"ग़ालिब"}
कुछ लोगों को शायद यूँ ही मर जाना लिखा होता हो ओ
इसीलिए हम भी "गाफिल"जिए जा रहे हैं,जिए जा रहे हैं !!
सच बताऊँ तो यह ग़ज़ल समझ कर नहीं लिखी है,सच बताऊँ तो अपने समय में अपने ख़ुद के होने का कोई औचिया नहीं दिखाई देता,अपने होते हुए अपने चारो तरफ़ इतना कुछ होता हुआ दिखायी देता है,वो इतना दर्दनाक है,इतना मर्मान्तक है,कि दम-सा घुटता है,जुबां को रोका जा सकना कठिन होता है और आंखों से आंसूओं को रोक पानाभी,मगर सिवाय टुकुर-टुकुर ताकने के हम (बल्कि)मैं कुछ नहीं कर पाते।तो ऐसा भी जीना भला कोई जीना हुआ ??मगर जिए जाता हूँ.....अपने होने का अहम् और साथ ही अपने ही ना होने जैसी विवशता की पीड़ा...ये दोनों बातें एक साथ होती हैं तो कैसा होता है....??अपने को बहुत-कुछ समझने का बहम और कुछ भी नहीं होने का अहसास.....अपनी बातों में ख़ुद को दिखायी देती समझदारी और अपनी बातों को किसी को समझा नहीं पाने की मजबूरी......!!आदमी शायद ख़ुद को खुदा समझता है,शायद इसीलिए हर आदमी रोज सुबह अपनी-अपनी मस्जिद को जाता है....और शाम को गोया पिट-पिटा कर लौट आता है....आदमी की किस्मत ही ऐसी है,या आदमी ख़ुद अपनी किस्मत ऐसी ही बनाये हुए है....??......हमने खूब सारे ऐसे अकेले आदमी को देखा है,जिसने अपने बूते दुनिया बदल दी है.....मगर कोई सोच भी नहीं पता कि दरअसल वो ख़ुद भी इस छोटी-सी कतार में ख़ुद को खड़ा कर सकने का माद्दा अपने भीतर संजोये हुए है....!!हर आदमी दरअसल एक हनुमान है,जिसे अपनी भीतरी वास्तविक शक्तियों का अनुमान नहीं है,मगर याद दिलाये जाने पर शायद उसे भान हो जाए...उन व्यक्तियों में से एक तो मैं ख़ुद भी हो सकता हूँ....!!इस तरह विवश होकर जीना भी क्या जीना है....??कुछ भी ना कर सकना भी क्या होने में होना है....??.....एक-एक पल... मिनट...घंटा....हफ्ता.....साल.....दशक.....शताब्दी .....युग......बीता जा रहा है.....आदमी के भौतिक विकास की गाथा तो दिखायी देती है.....उसकी चेतना और आत्मा में क्या विकास हुआ है....किस किस्म का विकास है....आदमी अपने भीतर कहाँ तक पहुँचा है.....यह देखता हूँ तो कोफ्त होती है....क्योंकि....भौतिक चीज़ों की अभिलाषा में आपाद-मस्तक डूबा यह आदमी लालच के एक ऐसे सागर में डूबा हुआ दिखायी देता है....जिसकी गहराई की कोई थाह ही नहीं दिखायी देती.....और इस लालच के मारे असंख्य अपराध और असंख्य किस्म के खून-कत्ल आदि किए जा रहा है...किए ही जा रहा है.....और शायद करता भी रहेगा.....ऐसे आदमी को इस भूत का सलाम.....ऐसी मानवता को इस भूत का हार्दिक सैल्यूट......और आप सबको असीम प्रेम......भरे ह्रदय से आप सबका

भूतनाथ.......!!

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