बुधवार, 30 दिसंबर 2009

अंधेरी कोठरी

खरीदा महंगा अर्पाटमैन्ट बहू बेटे ने
महानगर में
प्रमुदित थे दोनों बहुत

माँ को बुलाया दूसरे बेटे के पास से
गृह प्रवेश किया
हवन पाठ करवाया।

दिखाते हुए माँ को अपना घर
बहू ने कहा--
माँजी ! आपके
आशीर्वाद से संभव हुआ है यह सब
इनको पढ़ा लिखा कर इस लायक बनाया आपने
वरना हमारी कहाँ हैसियत होती इतना मंहगा घर लेने की

माँ ने गहन निर्लिप्तता से किया फ्लैट का अवलोकन
आँखों में चमक नहीं उदासी झलकी
याद आये पति संभवत:
याद आया कस्बे का
अपना दो कमरे, रसोई, एक अंधेरी कोठरी व स्टोर वाला मकान
जहाँ पाले पोसे बड़े किए चार बच्चे, रिश्तेदार, मेहमान

बहू ने पूछा उत्साह से-- कैसा लगा माँजी! मकान
'अच्छा है, बहुत अच्छा है बहू !
इतनी बड़ी खुली रसोई, बैठक, कमरे ,गुसलखाने कमरों के बराबर
सब कुछ तो अच्छा है
पर इसमें तो है ही नहीं कोई अंधेरी कोठरी

जब झिड़केगा तुम्हें मर्द, कल को, बेटा!
दुखी होगा जब मन
जी करेगा अकेले में रोने का
तब कहाँ जाओगी, कहाँ पोंछोगी आँसू और कहाँ से
बाहर निकलोगी गम भुला कर
जुट जाओगी कैसे फिर हँसते हुए
रोजमर्रा के काम में ।'

दिनेश चन्द्र जोशी

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