
उम्र बीत गई किराये के मकान में
आजकल आजकल आजकल आजकल
गुजर बसर हो गई इसी खींचतान में
पिता फिर मां विदा हुईं यहीं से श्मशान में
फिर भी अपना कुछ नहीं किराये के मकान में
बच्चों को मार, डांट, प्यार और पुचकार
रिश्तेदारों की फौज, आवभगत मानसम्मान
न्योते, बधाई, दावत और खूब मचा धमाल
अब भी तनहा रह गए इस मुकाम में
फिर भी अपना कुछ नहीं किराये के मकान में
भाई का लड़ना और बहन का थप्पड़ जड़ना
मां के आंचल में जा रोना और उसका गुस्सा होना
कितनी यादें समेटे ये आंगन इस मकान में
फिर भी अपना कुछ नहीं किराये के मकान में
बच्चे बढ़े, पढ़े और नौकरी पे दूर प्रदेश चले
मैं अकेला ही रह गया किराये के मकान में
और वो भी कहीं आशियाना बना नहीं पा रहे
अपनी जमीन से दूर हैं किसी किराये के मकान में
किराये का मकान अब सताने लगा
अपनी छत का मतलब समझ आने लगा
अपने अपनी ही छत के नीचे मिलते हैं
आदमी अकेला रह जाता है किराये के मकान में।।
-ज्ञानेन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें