शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

चम चम चमके चुन्दडी / राजस्थानी लोकगीत

चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे

कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे

चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे

चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे

कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे

कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे


म्हारी तो रंग दे चुन्दडी बिण्जारा रे

म्हारे साहेबा रो , म्हारे पिवजी रो , म्हारा साहेबा रो रंगदे रूमाल रे बिण्जारा रे

म्हारा साहेबा रो रंगदे रूमाल रे बिण्जारा रे

चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे

कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे

कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे


जोधाणा सरीखा पैर मैं बिण्जारा रे

कोई सोनो तो घड़े रे सुनार रे बिण्जारा रे

कोई सोनो तो घड़े रे सुनार रे बिण्जारा रे

चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे

कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे

कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे


पायल घड़ दे बाजणी बिण्जारा रे

म्हारी नथली पळ्कादार रे बिण्जारा रे

म्हारी नथली पळ्कादार रे बिण्जारा रे

चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे

कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे

कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे

रविवार, 20 दिसंबर 2009

तुम शहज़ादी रूप नगर की...


मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ तुम शहज़ादी रूप नगर की
हो भी गया प्यार हम में तो बोलो मिलन कहाँ पर होगा ?

मीलों जहाँ न पता खुशी का
मैं उस आँगन का इकलौता,
तुम उस घर की कली जहाँ नित
होंठ करें गीतों का न्योता,
मेरी उमर अमावस काली और तुम्हारी पूनम गोरी
मिल भी गई राशि अपनी तो बोलो लगन कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...


मेरा कुर्ता सिला दुखों ने बदनामी ने काज निकाले
तुम जो आँचल ओढ़े उसमें
नभ ने सब तारे जड़ डाले
मैं केवल पानी ही पानी तुम केवल मदिरा ही मदिरा
मिट भी गया भेद तन का तो मन का हवन कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...

मैं जन्मा इसलिए कि थोड़ी
उम्र आँसुओं की बढ़ जाए
तुम आई इस हेतु कि मेंहदी
रोज़ नए कंगन जड़वाए,
तुम उदयाचल, मैं अस्ताचल तुम सुखान्तकी, मैं दुखान्तकी
जुड़ भी गए अंक अपने तो रस-अवतरण कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...

इतना दानी नहीं समय जो
हर गमले में फूल खिला दे,
इतनी भावुक नहीं ज़िन्दगी
हर ख़त का उत्तर भिजवा दे,
मिलना अपना सरल नहीं है फिर भी यह सोचा करता हूँ
जब न आदमी प्यार करेगा जाने भुवन कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...

गोपालदास "नीरज"

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

इक चोर आया,मैं ओत्थे थैली छोड़ आया


ओ मैं निकला थैली ले के

ओ रस्ते पर,ओ सडक में

इक चोर आया,मैं ओत्थे थैली छोड़ आया

रब जाणे, कब गुजरा,तब सरकस

कब बाजार आया ,

इक चोर आया, मै ओत्थे थैली छोड़ आया

उस मोड़ पर मुझको चोर मिला

मैं घबरा कर सब कुछ भूल गया

उसके चाकू की धार देख

मैं डर कर चक्कर खा गया

होश आया मैं भागा

सब आलू, सब बैंगन, मै छोड़ आया

मैं ओत्थे थैली छोड़ आया

बस एक किलो करेला ख़रीदा

लौकी भी मुझको हरी लगी

क्या खूब थी मिर्ची रब जाणे

मुझको बड़ी ही खरी लगी

मैंने देखा करोंदा चिकना

संग उसके हरा मखना , मैं छोड़ आया

मैं ओत्थे थैली छोड़ आया

घबराकर मैं यूँ सूख गया

जैसे पालक सूख गई

छत्ते की ओट में छिपे-छिपे

जैसे जान ही मेरी निकल गयी

वो समझा, आज उसने, थैली में

माल जोर पाया-मैं ओत्थे थैली छोड़ आया

इक चोर आया,मैं ओत्थे थैली छोड़ आया

शिल्पकार

उतनी दूर मत ब्याहना बाबा!


बाबा!

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना

जहाँ मुझसे मिलने जाने खातिर

घर की बकरियां बेचनी पड़े तुम्हे




मत ब्याहना उस देश में

जहाँ आदमी से ज्यादा

ईश्वर बसते हों




जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ

वहां मत कर आना मेरा लगन



वहां तो कतई नही

जहाँ की सड़कों पर

मान से भी ज्यादा तेज दौड़ती हों मोटर गाडियां

ऊंचे ऊंचे मकान

और दुकान हों बड़े बड़े




उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता

जिस घर में बड़ा सा खुला आंगन न हो

मुर्गे की बांग पर जहाँ होती ना हो सुबह

और शाम पिछवाडे से जहाँ

पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे.



मत चुनना ऐसा वर

जो पोचाई और हंडिया में

डूबा रहता हो अक्सर




काहिल निक्कम्मा हो

माहिर हो मेले से लड़कियां उड़ा ले जाने में

ऐसा वर मत चुनना मेरी खातिर




कोई थारी लोटा तो नहीं

कि बाद में जब चाहूंगी बदल लुंगी

अच्छा-ख़राब होने पर




जो बात-बात में

बात करे लाठी डंडा की

निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी

जब चाहे चला जाये बंगाल,आसाम, कश्मीर




ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे

और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ

जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाये

फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने

जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ

किसी का बोझ नही उठाया




और तो और

जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ

उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ




ब्याहना तो वहां ब्याहना

जहाँ सुबह जाकर

शाम को लौट सको पैदल




मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट

तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम

सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....



महुआ का लट और

खजूर का गुड बनाकर भेज सकूँ सन्देश

तुम्हारी खातिर

उधर से आते-जाते किसी के हाथ

भेज सकूँ कद्दू,-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,

समय-समय पर गोगो के लिए भी




मेला हाट जाते-जाते

मिल सके कोई अपना जो

बता सके घर-गांव का हाल-चल

चितकबरी गैया के ब्याने की खबर

दे सके जो कोई उधर से गुजरते

ऐसी जगह में ब्याहना मुझे




उस देश ब्याहना

जहाँ ईश्वर कम आदमी ज्यादा रहते हों

बकरी और शेर

एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ

वहीं ब्याहना मुझे!



उसी के संग ब्याहना जो

कबूतर के जोड और पंडुक पक्षी की तरह

रहे हरदम साथ

घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर

रात सुख-दुःख बाँटने तक




चुनना वर ऐसा

जो बजता हों बांसुरी सुरीली

और ढोल मांदर बजाने में हो पारंगत




बसंत के दिनों में ला सके जो रोज

मेरे जुड़े की खातिर पलाश के फुल




जिससे खाया नहीं जाये

मेरे भूखे रहने पर

उसी से ब्याहना मुझे.

-निर्मला पुतुल

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

किराये का मकान

आशियाना बनाने की सोचते-सोचते
उम्र बीत गई किराये के मकान में
आजकल आजकल आजकल आजकल
गुजर बसर हो गई इसी खींचतान में
पिता फिर मां विदा हुईं यहीं से श्मशान में
फिर भी अपना कुछ नहीं किराये के मकान में

बच्चों को मार, डांट, प्यार और पुचकार
रिश्तेदारों की फौज, आवभगत मानसम्मान
न्योते, बधाई, दावत और खूब मचा धमाल
अब भी तनहा रह गए इस मुकाम में
फिर भी अपना कुछ नहीं किराये के मकान में

भाई का लड़ना और बहन का थप्पड़ जड़ना
मां के आंचल में जा रोना और उसका गुस्सा होना
कितनी यादें समेटे ये आंगन इस मकान में
फिर भी अपना कुछ नहीं किराये के मकान में

बच्चे बढ़े, पढ़े और नौकरी पे दूर प्रदेश चले
मैं अकेला ही रह गया किराये के मकान में
और वो भी कहीं आशियाना बना नहीं पा रहे
अपनी जमीन से दूर हैं किसी किराये के मकान में

किराये का मकान अब सताने लगा
अपनी छत का मतलब समझ आने लगा
अपने अपनी ही छत के नीचे मिलते हैं
आदमी अकेला रह जाता है किराये के मकान में।।

-ज्ञानेन्द्र

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

हम चुप हैं ।

बर्तन होटल पर धोता है ,फटे कपड़ो में सोता है
वो किसी और का बेटा है ,इसलिए हम चुप है।
सड़को पर भीख मांगती है ,और मैला सर पे है।
वह बहन किसी और की है ,इसीलिए हम चुप है।
बेटी की इज्जत लुट जाने पर भी वो बेबस कुछ न कर पाती है ।
वो माँ है किसी और कि इसीलिए हम चुप हैं ।
दिन भर मजदूरी करता है, फिर भी भूखा सोता है ।
किसी और का भाई है वो ,इसीलिए हम चुप है ।
बेटी का दहेज जुटाने को ,कितने समझोते करता है
वह किसी और का बाप है ,इसलिए हम चुप हैं ।
चुप रहना हमने सीख लिया है ,बंद करके अपने होंठो को ।
और जीना हमने सीख लिया है ,बंद कर के अपने होंट को ।
लकिन याद रखो दोस्तों ,एक ऐसा दिन भी आयेगा ।
अत्य्चार हम पे होगा ,और तब हमसे बोला न जाएगा ।
क्योंकि हम चुप हैं ।

गौतम यादव

है कोई तुझसे बड़ा

है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू आकाश है पहचान खुद को।
तेरा कोई अंत नही, तू अनंत है, है कोई जो तुझे सीमाओं में बांध सके।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू धरा है, पहचान खुद को।
तेरी सहनशीलता, तेरी सुन्दरता का कोई जोड़ नही।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
तू अग्नि है, अपनी पहचान कर।
तेरा तेज, तेरा ताप, तेरी ऊर्जा जीवन का स्रोत है।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू जल है, खुद को पहचान।
तेरी शीतलता, तेरी निर्मलता, तेरी पवित्रता किसी और में है क्या।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू वायु है, अपनी पहचान कर।
तेरा वेग, तेरी शक्ति, तेरा जीवन देने का अंदाज किसी और में है क्या।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।

अबरार अहमद

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